बांका

118 वर्ष पुराना है, लहोरिया काली मंदिर का इतिहास

अंग भारत/धोरैया (बांका)
धोरैया प्रखंड मुख्यालय से करीब 1० किलोमीटर दूर पैर पंचायत अंतर्गत लहोरिया गांव में लगभग 118 वर्षों से मां काली की पूजा आराधना नेम-निष्ठा से की जा रही है। गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि सन् 19०5 ई० में कहीं बाहर से आकर बसे लहोरिया गांव में डोम जाति के परिवार से पहली बार मुंशी मृदा नामक एक व्यक्ति द्बारा मिट्टी का पिडी बनाकर और ताड़ के डमोला से चारों तरफ घेराबंदी कर मां काली की पूजा आराधना आरंभ की गई थी। ठीक 36 साल बाद सन 1942 ई० से गांव के ही योगेंद्र नारायण सिह व मुंशी मृदा के सहयोग से काली मंदिर प्रांगण में बकरे की बलि देने की प्रथा की शुरुआत की गई, जो आज तक चली आ रही है। वहीं, सन् 19 71 में तत्कालीन पंचायत के मुखिया स्व० रणवीर प्रसाद सिह, राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित शिक्षक स्व० सुबोध नारायण सिह, पूर्व डीएसपी स्व० रामकृष्ण प्रसाद सिह व सभी ग्रामीणों के सहयोग से मंदिर का निर्माण कार्य शुरू कराया गया। आज मंदिर का भव्य रूपरेखा तैयार है, जिसका कार्य प्रगति पर है। ग्रामीण बताते हैं कि काली पूजा के लगभग 15 दिन पहले से ही अनुभवी मूर्तिकार द्बारा मां काली की प्रतिमा को आकार दिया जाता है। मान्यता है कि जो भी श्रद्धालु सच्चे मन से अपनी मुरादे मांगते हैं, उनकी मुरादे मैया पूरी करती है। श्रद्धालुओं की आस्था इस कदर है कि आगामी 2० वर्षों तक मां काली की प्रतिमा के निर्माण व पूजा-पाठ में होने वाले खर्च उठाने के लिए श्रद्धालुओं ने अपना-अपना नामांकन दर्ज करवा लिया है। इस वर्ष मूर्ति निर्माण से लेकर पूजा-पाठ में होने वाले खर्च गांव के ही जय नारायण प्रसाद सिह के द्बारा किया जा रहा है। प्रखंड क्षेत्र के बेलडिहा गांव के प्रचंड पंडित सूर्यनारायण ठाकुर बताते हैं कि इस मंदिर का इतिहास काफी पुराना है। आगे उन्होंने आध्यात्मिक बातें बताते हुए कहा कि काली शक्ति, सम्प्रदाय की सबसे प्रमुख देवी है। जिस तरह संसार के अधिपति शिव जी है, उसी तरह संहार की अधिष्ठात्री देवी मां काली है। शुभ-निशुंभ के बाद के समय मां काली के शरीर से एक तेज कुंज बाहर निकल गया था, फल स्वरुप उनका रंग काला पड़ गया, और तभी से उनको काली कहा जाने लगा। मां काली की पूजा का उपयुक्त समय रात्रि कल होता है। पाप ग्रह, विशेष कर राहु और केतु शनि की शांति के लिए मां काली की उपासना अचूक होती है। समिति के सदस्यों ने बताया कि वर्ष 2००1 तक पूजा के अवसर पर ग्रामीणों द्बारा नाटक का भी आयोजन किया जाता था, लेकिन 2००2 से प्रत्येक वर्ष कलाकारों द्बारा भक्ति जागरण का आयोजन किया जाता है।

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